भौतिक पता
सिविक सेंटर, उत्तरापान शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, उल्टाडांगा, कंकुरगाछी कोलकाता, पश्चिम बंगाल, 700054
दिल्ली के हौज़ ख़ास की किसी शाम को आप रोड के किनारे बैठकर सिर्फ़ आते-जाते लोगों को देखें—दूर से एक लड़का आता है, ढीला-ढाला कार्गो, कान में छोटे-छोटे सिल्वर हूप्स, पाँव में सफेद स्नीकर्स जो चमकते नहीं, जिए हुए लगते हैं; उसके पीछे दो लड़कियाँ, एक की साड़ी पर बेल्ट कसी है, दूसरी ने ओवरसाइज़्ड शर्ट को क्रॉप-टॉप की तरह बाँध रखा है। दो मिनट बाद बाइक रुकती है—राइडर ने कुर्ते पर डेनिम जैकेट डाली हुई है। यह सब “ट्रेंड” जरूर है, पर उससे भी ज़्यादा—यह है सहजता। Gen Z ने भारत के फ़ैशन को नए ढंग से पढ़ना सिखा दिया है: असल ज़िंदगी में पहनने लायक, मिलाकर, तोड़कर, अपनी शर्तों पर।

Gen Z को देखकर लगता है कपड़े अब अलमारी में नहीं रहते; वे सड़क पर, रील्स में, मेट्रो के डिब्बे में, कॉलेज की कैंटीन में, यहाँ तक कि को-वर्किंग स्पेस के फोनबूथ में बैठे ज़ूम कॉल पर भी दिखाई देते हैं। यह पीढ़ी “किसने बनाया” और “क्यों पहना” पूछती है। वे स्टाइल को बाइनरी में नहीं बाँधते—न “भारतीय बनाम वेस्टर्न” और न “लड़का बनाम लड़की”—बल्कि उन धागों में आवाजाही करते हैं जहाँ सीमाएँ पिघलती हैं। इस विस्तृत लेख में वही आवाजाही दर्ज है: डिजिटल वार्डरोब का उदय, छोटे शहरों का आत्मविश्वास, सस्टेनेबिलिटी का नया नज़रिया, जेंडर-फ्लुइड सिलुएट्स, आर्टिसनल क्राफ्ट की वापसी, और वह रोज़मर्रा की सौन्दर्य-शास्त्र—जो भारत को अभी भी भारत ही रहने देता है, पर ताज़ा।
डिजिटल वार्डरोब: स्क्रीन पर सिला-सिलाया स्टाइल
Gen Z ने फ़ैशन की पहली अल्फ़ाज़ स्क्रॉल करते हुए सीखी। इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स, पिंटरेस्ट बोर्ड्स—यही उनके “लुकबुक” हैं। फर्क सिर्फ़ इतना कि यहाँ कवर गर्ल/बॉय कोई दूर का सितारा नहीं; आपके जैसा कोई स्टूडेंट, कोई ग्राफ़िक डिज़ाइनर, कोई होम बेकर, कोई स्केटबोर्डर। इसी लोकतंत्र ने फ़ैशन से “डर” हटाया। पहले कपड़ों का मतलब “गलत मत पहनना” था, अब “ट्राई कर” है—फिट न बैठे तो री-स्टाइल कर, थ्रिफ्ट कर, अपसाइकिल कर, पोस्ट कर, फीडबैक ले, फिर बदल दे। एल्गोरिद्म ने एक और करामात की: छोटे-छोटे इन्फ्लुएंसर्स—जिनके पाँच-दस-पचास हज़ार फॉलोअर्स हैं—वे आपकी नज़र और जेब दोनों को दिशा दे रहे हैं। विश्वास का समीकरण उलट गया; चमकीले बैनर से ज्यादा असर करता है एक भरोसेमंद रिव्यू, एक ईमानदार “यह चीज़ ओवरहाइप्ड है” वाली स्टोरी।
बात सिर्फ़ प्रेरणा की नहीं; ख़रीद की भी है। लिंक-इन-बायो, कलेक्शन ड्रॉप, फ्लैश-सेल—सब उँगलियों पर। इंस्टाग्राम स्टोर से थ्रिफ्टेड शर्ट, व्हाट्सएप कैटलॉग से आर्टिसनल जाकेट, डायरेक्ट-टू-कन्ज्यूमर पेज से लिमिटेड स्नीकर्स—फिजिकल स्टोर अब अंतिम पड़ाव नहीं, कई बार तो बस “ट्रायल-रूम” जैसा एक अनुभव-बिंदु।
देसी-ग्लोबल का मेल: जहाँ बंधनी स्नीकर्स से मिलती है
Gen Z ने एक पुराना झगड़ा खत्म किया—“इंडियन पहनूँ या वेस्टर्न?” उनका जवाब है: दोनों, और कभी-कभी एक साथ। शादी में लेहेंगा के साथ स्नीकर्स अब “क्वर्क” नहीं, कम्फर्ट और रिद्म का बयान है—रात भर नाचोगे तो हील्स क्यों? ऑफिस में साड़ी पर ब्लेज़र—प्रोफ़ेशनलिज़्म और पर्सनैलिटी के बीच समझौता नहीं, संगति है। लखनऊ का चिकनकारी कुर्ता डेनिम के साथ जैसे हमेशा दोस्त रहा हो; केरल की कासवु साड़ी पर मिनिमल गोल्ड ज्वेलरी और सफेद ट्रेनर्स—यह सब “कॉपी” नहीं, क्यूरेशन है। Gen Z जानती है कि कपड़े स्मृति भी हैं: दादी की अलमारी से सिल्क का दुपट्टा निकालकर हुडी पर डालना, पुश्तैनी नथ को ब्रंच में पहनना—यह फ़ैशन से पहले अपनापन है।
जेंडर-फ्लुइडिटी: कपड़ों से बाहर आती पहचान
इस पीढ़ी ने रंगों, कट्स, और सिलुएट्स पर लगे “जेंडर” के ताले खोल दिए। पिंक शर्ट, मोतियों की माला, काजल—लड़कों पर ये सब “बयान” नहीं, सामान्य चीज़ें बनती जा रही हैं। लड़कियाँ पावर सूट को साड़ी जितनी नज़ाकत से पहनती हैं—और साड़ी को पावर सूट जितने आत्मविश्वास से। नॉन-बाइनरी और ट्रांस युवाओं के लिए ओवरसाइज़्ड परतें, ड्रेपी ट्यूनिक्स, न्यूट्रल पैलेट—सबसे ज़्यादा आज़ादी देते हैं क्योंकि वे बॉडी पर “हितकारी धुंध” बिछा देते हैं: सिलुएट नहीं, शख़्सियत दिखती है। असल बदलाव यह है कि फ़ैशन “लैंगिक निर्देश” नहीं देता; वह “उपलब्ध विकल्प” बनकर सामने आता है—लोग चुनते हैं, और चुनाव की वैधता पर बहस नहीं, जश्न होता है।
छोटे शहर, बड़ी कहानी: इंदौर से गुवाहाटी तक
किसी ने मान लिया था कि फ़ैशन की ऑक्सीजन मुंबई-दिल्ली-बेंगलुरु में है। पर पिछले कुछ सालों में असली धड़कन टियर-2 और टियर-3 शहरों में सुनाई देने लगी। इंदौर की साफ-सुथरी गलियों में थ्रिफ्ट-मीट्स, नागपुर में स्थानीय कपड़ा बाज़ारों के बीच इंस्टाग्राम शॉप्स, पटना में कैंपस-फ्लीज़, देहरादून की कैफ़े-स्ट्रिप पर अपसाइकिल बूथ—इंटरनेट ने सप्लाई-चेन की दूरी घटा दी, और आत्मविश्वास की दूरी मिटा दी। इन शहरों की Gen Z “नकल” नहीं करती; वे अपना सौंदर्यशास्त्र निकालती है—रंग थोड़ा तेज़, प्रिंट थोड़ा बोल्ड, और बजट के भीतर। यही लोकतंत्र है: फ़ैशन अब पासपोर्ट से नहीं, डाटा पैक से चलता है।
सस्टेनेबल फ़ैशन: ट्रेंड नहीं, तहज़ीब
Gen Z की सबसे जिद्दी आदत है—सवाल पूछना। यह कपड़ा किस फाइबर से बना? पानी कितना लगा? किसने सिलाई की—क्या उसे सही दाम मिला? जवाब ढूँढते-ढूँढते वे थ्रिफ्ट पर पहुँचीं, रीसेल पर, रिपेयर पर। “नई चीज़ लो” से ज़्यादा कूल हो गया “अच्छी चीज़ को लंबे समय तक चलाओ।” फ़ास्ट-फ़ैशन का विरोध ट्वीट पर सीमित नहीं—आप बैकपैक पर लगे सेफ़्टी-पिन, घिसी डेनिम पर किया गया हस्त-सूत्र वाला डार्निंग, और कपड़ों की “स्वैप पार्टी” में यह बदलाव देख सकते हैं। सस्टेनेबिलिटी का देसी अर्थशास्त्र भी है—रिपीट पहनने की शर्म हट गई। एक ही ब्लेज़र को पाँच तरीकों से स्टाइल करना “समझदारी” माना जाता है, कंजूसी नहीं। और, कपड़ों की उत्पत्ति को लेकर स्थानीय क्राफ्ट की ओर लौटाव—खादी, अज्रख, इकत, पाटन पटोला—यह सिर्फ़ “हेरिटेज” नहीं, ह्यूमन वैल्यू है।
शादियाँ, त्यौहार, और “फ़ंक्शन-वियर” की नई व्याकरण
भारतीय शादियाँ हमेशा फ़ैशन की प्रयोगशाला रही हैं, लेकिन Gen Z ने उनकी परिभाषा बदल दी: भारी कढ़ाई, पाँच किलो का लहंगा और मेचिंग-फैमिली-सेट के बजाय “मिक्स-एंड-मैच”—दोपट्टा नानी का, ब्लाउज़ मिनिमल, स्कर्ट अपसाइकिल। दूल्हे का शेरवानी-स्नीकर कॉम्बिनेशन अब चौंकाता नहीं, प्रसन्न करता है। फ़ैमिली फ़ंक्शन्स में कोऑर्ड सेट, इंडो-वेस्टर्न अंगरखा, और “बारात-रेडी रेनकोट” (हाँ, मानसून शादियाँ!)—फ़ंक्शन-वियर अब मौसम, मूड और मूवमेंट—तीनों का दोस्त है।
OTT, रैप और स्ट्रीट: स्क्रीन से सड़क तक
एक समय था जब फ़ैशन आइकन का अर्थ था “जिसने अवॉर्ड शो में क्या पहना।” अब वेब-सीरीज़ के किरदार, रियलिटी शो के डांसर, और इंडी रैपर्स फ़ैशन की भाषा तय करते हैं। स्ट्रीटवियर—ओवरसाइज़्ड टीज़, कार्गोज़, यूटिलिटी वेस्ट, बकेट हैट—अब कॉलेज की वर्दी जैसा आम है। पर इसकी भारतीय बोली अलग है: बकेट हैट पर कश्मीरी कढ़ाई, कार्गो पर ब्लॉक-प्रिंट पैच, स्नीकर्स के फीते में रंगीन धागे। स्टाइल कॉपी नहीं, कन्वर्सेशन है—“मुझे भी यही चाहिए” से ज्यादा “मैं इसे अपने शहर जैसा कैसे बनाऊँ?”
ब्यूटी, स्किनकेयर और ग्रूमिंग: जेंडर की दीवार गिरना
Gen Z के बाथरूम शेल्फ़ पर आप पाएँगे—सनस्क्रीन, नायसिनेमाइड, रेटिनॉल, लिप मास्क, हेयर सीरम—और यह सब किसके? सबके। स्किनकेयर अब लड़कियों की “शौकिया” चीज़ नहीं; यह बेसलाइन हाइजीन है। मेकअप की भाषा भी बदली—ग्राफ़िक आईलाइनर, नीऑन या पेस्टल शेड्स, मिनिमल बेस। लड़कों ने भी स्किनकेयर में निवेश किया—मुँहासे छुपाने के बजाय उन्हें समझना। पार्लर/सलून का अनुभव अब “मर्दों का हेयरकट—स्त्रियों का फेशियल” जैसी दो कोठरियों में नहीं; आप ब्रो-लैमिनेशन, नेल-आर्ट, और पियर्सिंग को सभी जेंडर्स के लिए सहज होते देखेंगे।
फिटनेस, एथलीज़र और माइंडफुल लाइफ़: “वर्क-आउट” से आगे
जिम कार्ड से आगे की बात है: योग ऐप की नोटिफिकेशन, रन क्लब्स, साइक्लिंग गँग्स, क्लाइम्बिंग जिम, और रविवार की मॉर्निंग—आर्टिसन कॉफी के साथ रीकवरी। एथलीज़र ने ऑफिस तक दस्तक दी—टेक-फैब्रिक शर्ट, स्ट्रेचेबल चिनो, सफेद लो-टॉप्स। “आराम” अब आलस का लेबल नहीं; यह उत्पादकता का इंफ्रास्ट्रक्चर है। माइंडफुलनेस के साथ कपड़ों का रिश्ता मज़बूत हुआ—खुरदरे टैग काट देना, स्किन-सेफ डाईज़, सॉफ्ट लाइनिंग—बॉडी-न्यूरोलॉजी तक की बात हो रही है। कपड़े सिर्फ़ दिखते नहीं—तनाव घटाते हैं, मूड बनाते हैं, दिन संभालते हैं।
क्राफ्ट रिवाइवल: आर्टिसन के हाथों की इज़्ज़त
Gen Z जानती है कि “हैंडमेड” कोई कैप्शन-ट्रिक नहीं; यह मानव श्रम, कौशल और समुदाय की कहानी है। जैमदानी की महीनियत, कच्छ की अजरख ब्लॉक-प्रिंट, बुनकरों के ताना-बाना—ये सब “त्योहार के दिन” तक सीमित नहीं रखे गए। रोज़ पहनने लायक डिज़ाइन, वॉश-केयर आसान, कट्स आधुनिक—यहीं कला का लोकतंत्रीकरण हुआ। आर्टिसन-कोलैब्स में क्रेडिट दिखना शुरू हुआ—टैग पर मास्टरक्राफ्ट-पर्सन का नाम, पेमेन्ट स्ट्रक्चर की झलक, स्टोरीटेलिंग में गाँव और करघे की जगह। जब पहनने वाला जानता है कि इस शर्ट पर किसी के हाथ की रिकॉग्नाइज़ेबल “खामी” है—वही उसे अद्वितीय बनाती है—तो फ़ैशन, नैतिकता और लगाव, तीनों का याराना बन जाता है।
ख़रीद की मनोविज्ञान: ड्रॉप कल्चर, लिमिटेड एडिशन और रिपीट स्टाइलिंग
Gen Z “खूब सारे” के बजाय “कुछ चुने हुए” में दिलचस्पी रखती है। ड्रॉप-कल्चर—शुक्रवार 8 बजे, कलेक्शन गिरा, पाँच मिनट में सोल्ड-आउट—यह सिर्फ़ दुर्लभता का खेल नहीं; यह समुदाय का पल है: डीएम में लिंक शेयर, स्टोरी पर “got ‘em”, फिर अनबॉक्सिंग। लिमिटेड एडिशन का आकर्षण बना रहता है क्योंकि रिपीट स्टाइलिंग को इज़्ज़त मिली है—आज हूडी जैकेट के नीचे, कल साड़ी के ऊपर। “मैंने इसे कितनी बार पहना” शर्म नहीं, शान है—हर बार अलग तरीके से।
काम, कैंपस और रिमोट: ड्रेस-कोड की नई व्याख्या
स्टार्टअप ऑफिस के एस्थेटिक्स—अनौपचारिक, क्रिएटिव, तेज़—कपड़ों में भी उतरते हैं। बिजनेस-कैज़ुअल का मतलब अब बेजान नहीं; यह निट-पोलो, रिलैक्स्ड ट्राउज़र, सॉफ्ट जैकेट, क्लीन स्नीकर्स है। कैंपस में टोट बैग्स, बेसबॉल कैप्स, यूटिलिटी बैकपैक्स, और लैपटॉप-स्लीव्स अपने आप स्टाइल-स्टेटमेंट बन जाते हैं। रिमोट-वर्क की “कमर से ऊपर” फ़ैशन धरा रह गया, लेकिन धीरे-धीरे पूरा सिलुएट वापस आया—क्योंकि घर से बाहर निकलना खुद एक मूड-बूस्टर है। को-वर्किंग में आप साड़ी के साथ नॉइज़-कैंसलिंग हेडफ़ोन और स्मार्टवॉच को उतनी ही नैचुरल सिनर्जी में पाएँगे, जितनी कभी फॉर्मल शर्ट के साथ टाई।
किंचित डेटा-सेंस, मगर कहानी-फर्स्ट
संख्याएँ यहाँ संदर्भ देती हैं तो ठीक, मगर Gen Z के लिए असली मेट्रिक “वाइब” है—क्या यह चीज़ “मेरे जैसी” लगती है? क्या यह टिकेगी? क्या मैं इसे अपनी भाषा दूँगा/दूँगी? इसी वजह से पारदर्शिता—फाइबर कंटेंट, सप्लाई-चेन, कार्बन-फुटप्रिंट, फेयर पे—इन सबका संवाद ब्रांड-पेज पर सामने आने लगा है। कीमत मायने रखती है, पर वैल्यु ज्यादा—लंबे समय तक चले, बहु-उपयोग हो, रिपेयर-सदाशय हो।
शहर-दर-शहर: माइक्रो-सीन्स की झलक (टेबल 1)
शहर/क्षेत्र | स्टाइल सिग्नेचर | कहाँ दिखता है |
---|---|---|
दिल्ली NCR | फ्यूज़न पावर-ड्रेसिंग: साड़ी+ब्लेज़र, बूट्स के साथ कुर्ता | हौज़ ख़ास, खान मार्केट, गुरुग्राम को-वर्किंग |
मुंबई | मिनिमल-मीट्स-मोनसून: हल्का फैब्रिक, क्लीन सिलुएट, स्नीकर्स | बांद्रा, फोर्ट, आर्ट डिस्ट्रिक्ट |
बेंगलुरु | टेक-एथलीज़र: स्ट्रेच-चिनो, निट-पोलो, फंक्शनल बैकपैक | इंदिरानगर, चर्च स्ट्रीट |
कोलकाता | आर्ट-इंफ्लेक्टेड: कॉटन साड़ी+स्नीकर, हैंडलूम शर्ट्स | कॉलेज स्ट्रीट, पार्क स्ट्रीट |
अहमदाबाद/जयपुर | क्राफ्ट-फ़ॉरवर्ड: ब्लॉक प्रिंट, इंडिगो, अजरख जैकेट | हैंडलूम हब्स, डिज़ाइन फ़्लीज़ |
पंजाब | हाई-एनर्जी स्ट्रीट: ब्रांडेड स्नीकर्स, ट्रैकसूट, कैप्स | मोहाली, लुधियाना मार्केट्स |
केरल | क्लीन-लाइन मिनिमल: कासवु, न्यूट्रल पैलेट, सैंडल्स | फोर्ट कोच्चि, थिरुवनंतपुरम |
नॉर्थईस्ट | फ्यूज़न-ग्रंज: लेयर्स, स्टड्स, स्थानीय वीव्स | शिलांग, इम्फाल, गुवाहाटी |
यह टेबल नक्शे की तरह है, नियम-पुस्तिका नहीं। शहर बदलता है, टेबल की पंक्तियाँ भी—पर यह दिखाती हैं कि Gen Z पहनावे में स्थानीय बोली कैसे जोड़ती है।
मिलेनियल बनाम Gen Z: प्राथमिकताओं का तुलनात्मक फ्रेम (टेबल 2)
पहलू | मिलेनियल्स | Gen Z |
---|---|---|
प्रेरणा | बॉलीवुड/मैगज़ीन/हाई-फ़ैशन | इंस्टाग्राम/माइक्रो-क्रिएटर्स/मीम-कल्चर |
खरीद चैनल | मॉल, ब्रांड स्टोर | ऑनलाइन, थ्रिफ्ट, D2C, ड्रॉप्स |
स्टाइल दर्शन | “सही पहनना” | “अपना पहनना” |
जेंडर दृष्टि | अपेक्षाकृत पारंपरिक | जेंडर-फ्लुइड/नॉन-बाइनरी |
सस्टेनेबिलिटी | “अच्छा है तो ठीक” | “अच्छा नहीं तो नहीं”—डील-ब्रेकर |
खर्च पैटर्न | कुछ बड़े ब्रांड्स, कम रोटेशन | क्यूरेटेड मिक्स, हाई रोटेशन, री-स्टाइल |
क्राफ्ट कनेक्शन | फेस्टिव-से-कैज़ुअल अलग | रोज़मर्रा में हैंडलूम/हैंडक्राफ्ट शामिल |
“रिपीट” का कल्चर | कभी-कभी संकोच | गर्व, नई स्टाइलिंग के साथ |
टेक, ट्राई-ऑन और साइज़-इंक्लूसिविटी
वर्चुअल ट्राई-ऑन, एआर मिरर्स, फिट-रिकमेंडेशन चार्ट्स—Gen Z इन टूल्स को जुगाड़ नहीं, सुविधा मानती है। असल बदलाव साइज़-इंक्लूसिविटी में दिखता है—चार-साइज़ से सोलह-साइज़ तक, और उससे आगे। यह सिर्फ़ विकल्प नहीं बढ़ाता; यह आत्म-सम्मान का विषय है। कट्स जो विभिन्न बॉडी-टाइप पर बैठें, इलास्टिक जो निचोड़े नहीं, कपड़ा जो साँस ले—यह भाषा रिटर्न-रेट घटाती है और रिश्ते बढ़ाती है।
करियर और क्रिएटिव इकोनॉमी: फ़ैशन एक गिग, फिर करियर
किसी समय “फ़ैशन में जाना” मतलब डिज़ाइन स्कूल, इंटर्नशिप, हाउस जॉब। आज फ़ैशन-क्रिएटर, थ्रिफ्ट-क्यूरेटर, रीसेल-मैनेजर, कम्युनिटी-लिडर, स्टाइलिस्ट-ऑन-डीएम, अल्टरशन-आर्टिस्ट—करियर पाथ्स बिखरे नहीं, जुड़े हुए हैं। आप हफ़्ते में दो दिन पॉप-अप लगाते हैं, तीन दिन कंटेंट बनाते हैं, वीकेंड को ड्रॉप हिट करते हैं। यही क्रिएटर इकोनॉमी × फ़ैशन है—जहाँ स्टाइल स्किल नहीं, आजीविका भी है।
मार्केटिंग का नया व्याकरण: मेसेज नहीं, मिरर
Gen Z को उपदेश नहीं चाहिए; उन्हें आईना चाहिए जहाँ वे खुद को देख सकें—रंग, भाषा, शरीर, पहचान, शहर। ब्रांड्स जो “हमारे साथ बनो” कहते हैं, उनसे बेहतर वे हैं जो “तुम जैसे हो, वैसे ही आओ” कहते हैं। मीम-कोलैब्स, कैंडिड शूट्स, कम्युनिटी-मीट्स—ये सक्रिय रणनीतियाँ हैं। क्रेडिबिलिटी अब लाइक्स से नहीं, कन्सिस्टेंसी से बनती है: जो बोला, वह किया—कलेक्शन के बाद भी सपोर्ट, रिपेयर पॉलिसी, ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट।
क्षेत्रीय सौन्दर्यशास्त्र: धागों की बोलियाँ
पंजाब का हाई-ऑक्टेन स्ट्रीट, नॉर्थईस्ट का फ्यूज़न-ग्रंज, गुजरात-राजस्थान का ब्लॉक-प्रिंट मिनिमल, कोलकाता का इंटेलेक्चुअल-इंडी, केरल का साफ-सुथरा मोनोक्रोम—Gen Z इन बोलीयों को मिलाकर वाक्य बनाती है। दिल्ली में आप नागा वीव्स का स्टोल बेंगलुरु की टेक-टी पर देखते हैं; मुंबई में कच्छ का मिरर-वर्क मिनी-बैग मॉन्सून-रेडी जैकेट पर टंगा है। “टूरिस्ट” सॉवेनियर नहीं; सांस्कृतिक सह-लेखन है।
राजनीति-रहित नहीं, टकराव-रहित नहीं
जब कपड़े पहचान का विस्तार हैं, तो वे राजनीति से दूर कैसे रहेंगे? कैंपस की टी-शर्ट्स पर नारे, पिन्स पर छोटे-छोटे स्टेटमेंट, रेनबो-फ़्लैग कफ़—यह सब रैली नहीं, रोज़मर्रा की भाषा है। बहसें भी साथ—कल्चर एप्रोप्रिएशन बनाम कल्चर अप्रीसिएशन, फ़ास्ट-फ़ैशन की कीमत, लेबर राइट्स। Gen Z ग़ुस्सा भी करती है, भूलती भी है, फिर सीखती है—पर “नॉर्मलाइज़” गलत को नहीं करती। ब्रांड्स के लिए यह परीक्षा है—सिर्फ़ ट्रेंड-सर्फिंग नहीं, वैल्यू-स्टेडिंग भी।
रख-रखाव, रिपेयर और भावनात्मक टिकाऊपन
कपड़े लंबे टिकें, यह सिर्फ़ सिलाई का प्रश्न नहीं; लगाव का भी। जिस शर्ट पर आपकी पहली सोलो-ट्रिप का कॉफी-स्टेन है, उसे आप फेंकेंगे नहीं; उस पर सुंदर पैच लगेगा। दादी के ब्लाउज़ का कपड़ा पतला हो गया—कोई बात नहीं, उसे स्क्रंची बनाकर रोज़ पहन लो। यह “इमोशनल ड्यूरेबिलिटी” Gen Z की संस्कृति में बसा है—मरम्मत शर्म नहीं, शौर्य है। इसी से कपड़ों की कहानियाँ बनती हैं—और कहानी जितनी मज़बूत, वस्तु उतनी टिकाऊ।
ब्रांड्स के लिए छोटा-सा प्लेबुक (बिना उपदेश के)
पहला, सुनो—कमेंट्स, डीएम, रिव्यू—जहाँ दर्द है, वहीं डिज़ाइन शुरू करो। दूसरा, कमिट करो—साइज़, फिट, फेयर पे—काग़ज़ नहीं, प्रैक्टिस में। तीसरा, कम्युनिटी बनाओ—पॉप-अप्स, क्लब्स, रन-मीट्स, रिपेयर-काउंटर। चौथा, क्रेडिट दो—आर्टिसन का नाम छापो, क्रिएटर को ब्रीफ़ में जगह दो। पाँचवाँ, रेस्पॉन्सिबल ड्रॉप्स—कम बनाओ, अच्छा बनाओ, सपोर्ट करो। और हाँ—हास्य मत भूलो; मीम्स सिर्फ़ मज़ाक नहीं, सांस्कृतिक संवाद हैं।
कल की झलक: 2030 के वार्डरोब में क्या होगा
जेंडर-लेबल्स और ढीले होंगे; एथलीज़र और फंक्शनल-टेलरिंग एक-दूसरे में घुलेंगे। सस्टेनेबल फैसिलिटी बुनियादी अपेक्षा बनेगी—रिपेयर-स्टेशन, टेक-बैक, री-डाई सर्विस सामान्य। एआर ट्राई-ऑन में सटीक साइजिंग से रिटर्न घटेंगे। हैंडलूम/हैंडक्राफ्ट रोज़ के कपड़ों में और गहरे उतरेंगे—नाज़ुक नहीं, ड्यूरेबल अवतार में। और सबसे ज़रूरी—रिपीट-स्टाइलिंग का गर्व संस्कृति में और जड़ पकड़ेगा। “नई चीज़” का आनंद रहेगा, पर “मेरी चीज़” का सम्मान बड़ा होगा।
निष्कर्ष नहीं—एक खुला सिरा
Gen Z ने फ़ैशन को “दिखावा” से “डायलॉग” बना दिया है। कपड़ों से वे तर्क करती हैं: क्यों इतना भारी? क्यों इतना टाइट? क्यों इतना जेंडर्ड? वे जवाब भी देती हैं: हल्का, साँस लेने वाला, घुला-मिला, ईमानदार। और यह सब करते हुए वे भारत को कम भारतीय नहीं बनातीं; उल्टा, भारत को नयी आवाज़ देती हैं—जिसमें कच्ची गली, करघे की खटर-पटर, रैप बैटल, मानसून की बूँदें और मेट्रो की सीटी एक साथ बजती हैं।
फ़ैशन की किताब में यह अध्याय लंबा चलेगा, क्योंकि यह सिर्फ़ ब्रांड्स और रैम्प का मामला नहीं—यह रोज़ के कपड़ों का, रोज़ के मूड का, और रोज़ के सम्मान का मामला है। अगर आप आज अपनी अलमारी खोलें और उसमें एक चीज़ जोड़ना चाहें—तो वह “बोल्डनेस” नहीं, बेलॉन्गिंग हो: जो पहनें, वह आपके साथ रहे, आपकी तरफ़ रहे, और थोड़ी-सी दुनिया को भी आपकी तरफ़ खींच लाए। यही Gen Z का असली डिज़ाइन ब्रीफ़ है—और भारत का अगला दशक, शायद, इसी ब्रीफ़ पर कटेगा और सिलेगा।

भारती शर्मा एक स्वतंत्र पत्रकार और लेखिका हैं, जिनका झुकाव हमेशा से समाज, संस्कृति और पर्यावरण से जुड़ी कहानियों की ओर रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने विभिन्न स्थानीय समाचार पत्रों और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर काम किया।
भारती का मानना है कि खबरें सिर्फ़ सूचनाएँ नहीं होतीं, बल्कि लोगों की आवाज़ और समाज की धड़कन होती हैं। इसी सोच के साथ वह Hindu News Today के लिए लिखती हैं। उनकी लेखनी कला, प्रकृति, खेल और सामाजिक बदलावों पर केंद्रित रहती है।
उनकी शैली सीधी, संवेदनशील और पाठकों से जुड़ने वाली है। लेखों में वह अक्सर ज़मीनी अनुभवों, स्थानीय किस्सों और सांस्कृतिक संदर्भों को शामिल करती हैं, ताकि पाठकों को सिर्फ़ जानकारी ही नहीं बल्कि जुड़ाव भी महसूस हो।