भारत की विलुप्तप्राय प्रजातियाँ और संरक्षण की जंग

जंगल की ख़ामोशी में छुपी हुई चीख़

एक बार कर्नाटक के नागरहोल टाइगर रिज़र्व में मैं गश्त पर निकले गार्ड्स के साथ चला था। पेड़ों के बीच अचानक सन्नाटा छा गया। कोई पक्षी नहीं, कोई पत्ता नहीं हिला। गार्ड ने कान लगाकर कहा—“बाघ पास है।” उस पल मुझे समझ आया, कि ये जंगल जिनसे हम सिर्फ़ “टूरिस्ट स्पॉट” की तरह मिलते हैं, असल में इनकी धड़कन नाज़ुक और असुरक्षित है।

भारत की यही कहानी है—जहाँ बाघ, गैंडा, हाथी और गिद्ध जैसे जीव हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं, लेकिन उनकी संख्या तेज़ी से घट रही है। और संरक्षण? यह सिर्फ़ वैज्ञानिक या सरकार का मुद्दा नहीं—यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है।

कौन-कौन सी प्रजातियाँ ख़तरे में हैं?

भारत की जैव विविधता अद्भुत है—लेकिन इसी विविधता का सबसे बड़ा संकट यह है कि शिकार, जंगल कटाई, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन ने कई प्रजातियों को विलुप्ति के कगार पर पहुँचा दिया।

तालिका 1: भारत की कुछ प्रमुख विलुप्तप्राय प्रजातियाँ

प्रजातिवर्तमान स्थितिअनुमानित संख्यामुख्य खतरे
बाघ (Tiger)संकटग्रस्त (Endangered)~3,167 (2022)शिकार, आवास का नुकसान
एशियाई शेर (Asiatic Lion)संकटग्रस्त~675 (गिर, गुजरात)सीमित आवास, बीमारियाँ
एक सींग वाला गैंडा (Rhino)असुरक्षित (Vulnerable)~3,700शिकार, बाढ़, मानव संघर्ष
हिम तेंदुआ (Snow Leopard)संकटग्रस्त~500–700ग्लेशियर पिघलना, शिकार
गिद्ध (Vultures)गंभीर रूप से संकटग्रस्तकई प्रजातियों में 90% गिरावटडाइक्लोफेनाक दवा, जहरीला खाना

बाघ की दहाड़ और उसका संघर्ष

बाघ शायद भारत की पहचान है। मुद्रा पर छपा है, कहानियों में है, लेकिन 20वीं सदी के बीच तक आते-आते इनकी संख्या 40 हज़ार से गिरकर कुछ हज़ार रह गई।

1973 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू हुआ। कई रिज़र्व बने। और हाँ, आज संख्या बढ़कर 3,000 से ऊपर है। लेकिन असली चुनौती यह है कि उनके लिए जगह नहीं बच रही। एक बाघ को 60–100 वर्ग किमी का इलाका चाहिए—सोचिए, अगर पास में गाँव है, खेती है, सड़क है, तो टकराव होगा ही। और यही टकराव इंसान और बाघ दोनों के लिए खतरनाक है।


गिद्ध की चुप्पी

90 के दशक तक गिद्ध आम थे। आप गाँव के पास की लाश देखते, तो गिद्ध मंडराते। और यही उनका काम था—प्राकृतिक सफाई। लेकिन 1990 के बाद उनकी संख्या 90% तक गिर गई। वजह? मवेशियों को दी जाने वाली दर्द-निवारक दवा डाइक्लोफेनाक। जिस जानवर ने वह दवा खाई, उसकी लाश खाने वाले गिद्ध मर गए।

परिणाम—कचरा बढ़ा, आवारा कुत्तों की संख्या बढ़ी, और रेबीज़ के मामले भी। यानी, एक पक्षी की कमी ने पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को हिला दिया।


गैंडे और उनका सींग

असम का काज़ीरंगा नेशनल पार्क—गैंडे का घर। एक सींग वाला गैंडा भारत की सबसे अनोखी प्रजाति है। लेकिन शिकारियों ने इसे “सोने” से भी महंगा बना दिया। गैंडे का सींग—जिसका कोई वैज्ञानिक औषधीय महत्व नहीं है—ब्लैक मार्केट में करोड़ों का बिकता है।

हर साल दर्जनों गैंडे मारे जाते हैं। सरकार ने ड्रोन, हथियारबंद गार्ड्स, यहाँ तक कि सेना तक तैनात की। लेकिन असली सवाल यह है—जब तक मांग रहेगी, तब तक शिकार भी रहेगा।


हिम तेंदुआ: बर्फ़ का भूत

हिमालय की ऊँचाइयों में बर्फ़ का भूत कहे जाने वाला हिम तेंदुआ अदृश्य-सा है। उसकी झलक मिलना भी दुर्लभ। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग ने उसके घर—ग्लेशियर और ऊँचे चरागाह—को खतरे में डाल दिया है।

चरवाहों के साथ संघर्ष भी बढ़ा। बकरियों को मारने पर हिम तेंदुए का शिकार हो जाता है। और एक जानवर, जो कभी देवताओं का दूत माना जाता था, अब इंसानों की बंदूक का शिकार है।


संरक्षण की कोशिशें

भारत में संरक्षण के कई मॉडल हैं—कुछ सफल, कुछ अधूरे।

  • प्रोजेक्ट टाइगर (1973) – बाघों की संख्या बचाने का सबसे बड़ा अभियान।
  • गिर का शेर – एशियाई शेर सिर्फ़ गुजरात में बचे हैं। यहाँ संरक्षण और लोकल समुदाय की भागीदारी से संख्या धीरे-धीरे बढ़ी।
  • काज़ीरंगा का गैंडा – सख्त सुरक्षा, स्थानीय लोगों की निगरानी।
  • गिद्धों के लिए ब्रीडिंग सेंटर – हरियाणा, पश्चिम बंगाल में प्रजनन केंद्र।

तालिका 2: प्रमुख संरक्षण प्रोजेक्ट्स

प्रोजेक्टवर्षकेंद्रित प्रजातिउपलब्धि
प्रोजेक्ट टाइगर1973बाघसंख्या 3,000+
गिर शेर संरक्षण1965 सेएशियाई शेर674 तक पहुँचे
काज़ीरंगा सुरक्षा1974 सेगैंडा~3,700
वल्चर ब्रीडिंग प्रोजेक्ट2006 सेगिद्धधीरे-धीरे वृद्धि

असली जंग: इंसान और विकास

सबसे बड़ा सच यह है कि संरक्षण सिर्फ़ जानवरों की जंग नहीं है। यह इंसान की भी जंग है। सड़कें, बाँध, खनन, शहरीकरण—ये सब विकास हैं, पर यही जानवरों के घर भी खा रहे हैं।

मैंने खुद देखे हैं गाँव जहाँ लोग कहते हैं—“बाघ हमारी भैंस ले गया, सरकार क्या करेगी?” उनके गुस्से को अनदेखा करना गलत है। इसलिए आज के संरक्षण मॉडल में कम्युनिटी पार्टिसिपेशन जरूरी है। जब तक गाँववाले न मानें, तब तक कोई भी प्रोजेक्ट अधूरा है।


भविष्य: उम्मीद या खतरा?

भारत में संरक्षण का भविष्य इस पर निर्भर करता है—क्या हम विकास और प्रकृति का संतुलन बना पाएँगे?

  • नई टेक्नोलॉजी जैसे ड्रोन, कैमरा ट्रैप, DNA एनालिसिस मदद कर रही हैं।
  • लेकिन अगर जंगल ही नहीं बचे, तो डेटा किस काम का?
  • बच्चों को स्कूल से ही “कंज़र्वेशन” पढ़ाना होगा।
  • और हाँ, हमें याद रखना होगा—प्रकृति को हम बचाते नहीं, हम बस उसका हिस्सा बनकर जीना सीखते हैं।

आख़िरी बात

जब भी मैं जंगल जाता हूँ और बाघ की दहाड़ सुनता हूँ, या गिद्ध को आसमान में चक्कर लगाते देखता हूँ, तो लगता है—ये सिर्फ़ जानवर नहीं। ये हमारी सभ्यता का आईना हैं। अगर ये बचे, तो हम बचे। अगर ये गए, तो हम भी कहीं खो जाएँगे।

संरक्षण कोई “ऑप्शन” नहीं है—यह ज़रूरत है। और भारत जैसे देश के लिए, यह हमारी पहचान की जड़ है।