भौतिक पता
सिविक सेंटर, उत्तरापान शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, उल्टाडांगा, कंकुरगाछी कोलकाता, पश्चिम बंगाल, 700054
भारत में खेलों की दुनिया कभी मर्दाना मानी जाती थी। गाँव की चौपाल पर भी अगर कोई लड़की बैट या फुटबॉल लेकर निकलती, तो ताने मिलते — “ये लड़कों का खेल है।” लेकिन अब 2020 के दशक में तस्वीर बदल चुकी है। बदल भी क्या, उलट चुकी है। अब लड़कियाँ सिर्फ खेल नहीं रही हैं, बल्कि भारत के लिए पदक जीतकर उन आवाज़ों को खामोश कर रही हैं जो कभी कहती थीं “तुम्हारे बस का नहीं।”

एक नया दौर
2000 के सिडनी ओलंपिक याद करो। कर्णम मल्लेश्वरी जब वेटलिफ्टिंग में ब्रॉन्ज मेडल लेकर लौटीं, तो पूरा देश हैरान था। कोई उम्मीद भी नहीं कर रहा था कि भारत की कोई महिला एथलीट वेटलिफ्टिंग में दुनिया को चुनौती देगी। लेकिन उस मेडल ने दरवाज़ा खोला। और उस दरवाज़े से जो पीढ़ियाँ गुज़रीं, उन्होंने भारत का खेल मैप ही बदल दिया।
आज मैरी कॉम, पी.वी. सिंधु, साइना नेहवाल, मीराबाई चानू, साक्षी मलिक, विनेश फोगाट — ये सिर्फ नाम नहीं, बल्कि रोल मॉडल हैं। और इनकी जर्नी आसान नहीं रही।
संघर्ष का स्वाद
महिला खिलाड़ियों की कहानियों में एक बात कॉमन है — संघर्ष।
मैरी कॉम को अपने गाँव से ट्रेनिंग के लिए मीलों चलना पड़ता था। रात को खेतों में काम करके दिन में प्रैक्टिस करती थीं। साइना नेहवाल ने हैदराबाद की ट्रैफिक और धूल में रोज़ाना घंटों शटल ट्रेनिंग की। विनेश फोगाट को दंगल के अखाड़ों में उतरने से पहले समाज की नज़रों से लड़ना पड़ा।
इनकी जीत हमें बताती है कि खेल सिर्फ मैदान पर नहीं, घर की चारदीवारी और समाज की सोच में भी लड़े जाते हैं।
ओलंपिक और वैश्विक मंच पर छाप
अगर कोई पूछे कि भारत की बेटियाँ ग्लोबल स्तर पर कहाँ खड़ी हैं, तो जवाब साफ़ है — अब पीछे नहीं।
कुछ ऐतिहासिक पल:
- 2000, सिडनी: कर्णम मल्लेश्वरी का ब्रॉन्ज।
- 2012, लंदन: मैरी कॉम का बॉक्सिंग ब्रॉन्ज, साइना नेहवाल का ब्रॉन्ज।
- 2016, रियो: पी.वी. सिंधु का सिल्वर, साक्षी मलिक का ब्रॉन्ज।
- 2020, टोक्यो: मीराबाई चानू का सिल्वर, लवलीना बोरगोहेन का बॉक्सिंग ब्रॉन्ज।
अब यह अपवाद नहीं रहे। अब हर ओलंपिक में उम्मीद रहती है कि भारत की बेटियाँ कुछ रंग दिखाएँगी।
बाधाओं का पहाड़
लेकिन सिर्फ मेडल गिनने से कहानी अधूरी है। चुनौतियाँ अब भी उतनी ही हैं।
- सुविधाओं की कमी: कई खिलाड़ी अभी भी टूटी जिम और खराब ट्रेनिंग ग्राउंड पर प्रैक्टिस करती हैं।
- सोशल स्टिग्मा: लड़कियों को अब भी “शादी कब करोगी” वाले सवाल सुनने पड़ते हैं।
- फंडिंग और स्पॉन्सरशिप: पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में महिला खिलाड़ियों को कम ब्रांड डील्स मिलती हैं।
बदलाव का रास्ता: Grassroots से Glory तक
पिछले दस सालों में राज्य सरकारों और प्राइवेट अकादमियों ने महिला खेलों पर ध्यान देना शुरू किया। हरियाणा, मणिपुर और उत्तर-पूर्व के राज्यों ने साबित किया कि अगर सुविधा और हिम्मत मिले, तो लड़कियाँ सोना ला सकती हैं।
एक झलक – भारत की टॉप महिला खिलाड़ियों और उनके मेडल्स
खिलाड़ी | खेल | प्रमुख उपलब्धियाँ |
---|---|---|
मैरी कॉम | बॉक्सिंग | 6 बार वर्ल्ड चैंपियन, ओलंपिक ब्रॉन्ज |
पी.वी. सिंधु | बैडमिंटन | ओलंपिक सिल्वर और ब्रॉन्ज, वर्ल्ड चैंपियनशिप गोल्ड |
मीराबाई चानू | वेटलिफ्टिंग | ओलंपिक सिल्वर, वर्ल्ड चैंपियनशिप गोल्ड |
साक्षी मलिक | रेसलिंग | ओलंपिक ब्रॉन्ज |
निकहत ज़रीन | बॉक्सिंग | वर्ल्ड चैंपियन 2022, 2023 |
खेलों में महिलाओं की नई पहचान
IPL ने पुरुष क्रिकेट को ग्लोबल बना दिया। लेकिन 2023 में जब WPL (Women’s Premier League) शुरू हुआ, तो यह एक और क्रांति थी। मुंबई इंडियंस वुमन, दिल्ली कैपिटल्स वुमन — ये सिर्फ टीमें नहीं, बल्कि एक बयान हैं कि महिला क्रिकेट अब साइड शो नहीं, मेन इवेंट है।
और सिर्फ क्रिकेट ही क्यों? अब हॉकी, एथलेटिक्स, रेसलिंग — हर जगह महिलाएँ अपनी आवाज़ बुलंद कर रही हैं।
मीडिया और बदलती मानसिकता
अगर आप 90s के अखबार पलटकर देखो, तो महिलाओं की खेल खबरें शायद किसी कोने में मिलती थीं। लेकिन अब?
- प्राइम टाइम पर महिला खिलाड़ियों के इंटरव्यू।
- ब्रांड ऐम्बेसडर बनकर बड़े विज्ञापनों में शामिल।
- सोशल मीडिया पर लाखों-करोड़ों फॉलोअर्स।
आज पी.वी. सिंधु सिर्फ खिलाड़ी नहीं, बल्कि ब्रांड हैं। मीराबाई चानू नॉर्थ ईस्ट की नहीं, पूरे भारत की बेटी हैं।
आने वाला कल
भारत की बेटियाँ अब सपनों में नहीं, हक़ीक़त में ओलंपिक गोल्ड को देख रही हैं। पेरिस 2024 और लॉस एंजेलिस 2028 — इन दोनों ओलंपिक्स में महिलाओं से बड़ी उम्मीदें हैं।
और यह उम्मीद बेवजह नहीं है।
- ट्रेनिंग इंफ्रास्ट्रक्चर सुधर रहा है।
- WPL जैसे लीग्स पैसा और प्लेटफॉर्म दे रहे हैं।
- और सबसे अहम — अब समाज लड़कियों को रोकने के बजाय सपोर्ट कर रहा है।
नतीजा: बाधाएँ टूटीं, रास्ते खुले
कभी खेलों में लड़कियाँ “अपवाद” मानी जाती थीं। आज वे “उम्मीद” बन चुकी हैं।
मैरी कॉम ने कहा था — “Don’t give up, because great things take time.”
और सच में, इन महान बेटियों ने समय लिया, संघर्ष किया, और अब वह समय आ गया है जब भारत की खेल यात्रा में महिला एथलीट्स अगली पंक्ति में खड़ी हैं।
भारत की बेटियाँ अब सिर्फ बाधाएँ नहीं तोड़ रहीं, बल्कि खेलों का भविष्य लिख रही हैं। और यह भविष्य चमकदार है।

भारती शर्मा एक स्वतंत्र पत्रकार और लेखिका हैं, जिनका झुकाव हमेशा से समाज, संस्कृति और पर्यावरण से जुड़ी कहानियों की ओर रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने विभिन्न स्थानीय समाचार पत्रों और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर काम किया।
भारती का मानना है कि खबरें सिर्फ़ सूचनाएँ नहीं होतीं, बल्कि लोगों की आवाज़ और समाज की धड़कन होती हैं। इसी सोच के साथ वह Hindu News Today के लिए लिखती हैं। उनकी लेखनी कला, प्रकृति, खेल और सामाजिक बदलावों पर केंद्रित रहती है।
उनकी शैली सीधी, संवेदनशील और पाठकों से जुड़ने वाली है। लेखों में वह अक्सर ज़मीनी अनुभवों, स्थानीय किस्सों और सांस्कृतिक संदर्भों को शामिल करती हैं, ताकि पाठकों को सिर्फ़ जानकारी ही नहीं बल्कि जुड़ाव भी महसूस हो।